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पुण्यपुरुष
१६
"चलो माँ, मैंने भी छाले छत्लुओं तो भगा दिया है ।
चलो ।"
रानी कमलप्रभा अपने छोटे से पुत्र को इस वीरतापूर्ण बात को सुनकर हँस पड़ी और उसने आगे बढ़कर बेटे को अपने अंक में भर लिया ।
उस भोले बालक और उस ममतामयी माता को क्या मालूम था कि उनके प्रबल शत्रु कहीं भागे नहीं थे । वे तो उन पर एक मारणान्तक प्रहार करने की ताक में तत्पर बैठे थे ।
रानी कमलप्रभा स्नेहपूर्वक कुमार को दुलार ही रही थी कि हाथ में नंगी तलवार लिए मंत्री मतिसार वहाँ दौड़ता हुआ आ पहुँचा । उसे इस रूप में इत समय देखकर रानी विस्मित रह गई । वह एकटक मन्त्री को देखती ही रह गई। यह क्या बात है, मन्त्री इतने आकुल व्याकुल क्यों हैं ? यह प्रश्न वह उनसे करे कि स्वयं मन्त्री ने ही घबराए हुए स्वर में कहा
"महारानीजी ! माताजी ! शीघ्रता कीजिए । आप भी तैयार हो जाइए और कुमार को भी तैयार कर लीजिए। इसी घड़ी हमें लम्बी यात्रा के लिए यहाँ से चल पड़ना है ।"
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इतना कहकर मन्त्री ने चारों ओर सतर्क दृष्टि से देखा। कुछ दूरी पर एक विशाल स्तम्भ के पीछे से शशांक का दृढ़ और गम्भीर चेहरा उसे दिखाई पड़ा। उसने
पुकारा
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