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________________ १६ पुण्यपुरुष बालक एक छोटी सी तलवार अपने नन्हें हाथों में लिए खेल रहा था। उसकी माता उसके पास ही आसन पर बैठी अपने लाडले लाल की बाल-क्रीड़ा देख रही थी और भविष्य के सुख-स्वप्नों में डूबी-सी प्रतीत होती थी। बालक देखने में ऐसा प्रतीत होता था जैसे वह कोई देवकुमार हो। इतना सुगठित सौन्दर्य और तेज सामान्यतया मानवों में दिखाई नहीं देता। भविष्यवेत्ताओं तथा पंडितों की तो बात ही क्या, कोई साधारण मनुष्य भी उस पुण्यवान बालक को एक दृष्टि से देखकर ही कह सकता था कि एक न एक दिन यह बालक महाप्रतापी सम्राट अथवा महान् धार्मिक महापुरुष बनेगा। यह बालक था चम्पानगरी का राजकुमार श्रीपाल और उसकी ममतामयी माता थी कमलप्रभा । सूर्य अस्ताचल की ओट हो चुका था। अन्धकार धीरे-धीरे घिरता चला आ रहा था। दास-दासियाँ राजमहल के विशाल, सुसज्जित कक्षों में सुवर्ण-मणिमय घृत दीप उजियार रही थीं। रानी कमलप्रभा ने अपने पुत्र से कहा "आओ बेटा ! अब खेल समाप्त करो, भोजन का समय हो गया।" अपने नन्हें से हाथ से, अपनी छोटी-सी तलवार से अन्तिम बार हवा को चीरते हए बालक ने अपने तोतले किन्तु उत्साहभरे स्वर में उत्तर दिया Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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