SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुण्यपुरुष १३ बन्दनवारे झूलने लगीं। अबीर-रंग और गुलाल ने जनपथों को आच्छादित कर दिया। निस्वार्थ, प्रजापालक राजा के प्रति उसकी कृतज्ञ प्रजा का यह प्रेमभरा भाव प्रदर्शन था। - प्रजा के प्रेम भाव की इस पुनीत छाया में और माता की आशीर्वादमयी गोद में बालक दिन-दिन द्वितीया के चन्द्रमा की भाँति बढ़ने लगा। उस नन्हें बालक के आगमन से राज्य में श्री तथा समृद्धि बढ़ेगी तथा बड़ा होकर वह अपनी प्रजा का पालन करेगा, इस आशा में उसका नाम 'श्रीपाल' रखा गया। और देखते ही देखते कुछ वर्ष व्यतीत हो गये । सुख और शान्ति से व्यतीत होते हुए इस काल में अचानक ही एक वज्रपात हुआ। राजा सिंहरथ इस असार संसार को त्यागकर अपनी अनन्त यात्रा के अजाने मार्ग पर चल पड़े। चम्पानगरी अनाथ हो गयी। हाहाकर मच गया। रानी कमलप्रभा किंकर्तव्यविमूढ़ रह गयीं। ____ अपनी विदा वेला में राजा सिंहरथ ने अपने स्वामिभक्त और विवेकवान मन्त्री से कहा था “मन्त्रिवर ! इस भूतल पर जो भी आता है वह एक न एक दिन जाता भी है। मेरे प्रयाण की घड़ी भी आ पहुँची है । तुम उदास क्यों दीखते हो?" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy