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________________ २५६ पुण्यपुरुष से लड़ा। किन्तु उसकी शक्ति सीमित थी तथा न्यायपक्ष भी उसके विपरीत था। अत: उसकी एक भी न चली। श्रीपाल महाराज के सात सौ सेनानायकों ने उसे चारों ओर से घेर लिया और फिर उसे बंधन में कस लिया। बन्दी अजितमेन को जब महाराज श्रीपाल के सामने उपस्थित किया गया तब श्रीपाल ने स्वयं आगे बढ़कर उसके बंधनों को काट दिया और एक सुन्दर आसन पर उन्हें बैठाकर विनम्र शब्दों में कहा "पूज्य काकाजी ! जो कुछ भी बीत गया, घटित हो गया, उपे भुला दीजिए। आप इस राज्य को अपने पास ही रखिए। मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है। मेरी केवल एक ही प्रार्थना है कि भविष्य में आप कभी भी प्रभु का विस्मरण न करें। प्रजा को पुत्रवत् माने तथा अहंकार से दूर रहें। आशा है मेरी इतनी-सी विनय को आप स्वीकार करेंगे।" . यह जो कुछ भी हुआ सब कुछ महाराज अजितसेन की कल्पना के विपरीत था। प्रथम तो अपने अभिमान में चूर वे श्रीपाल जैसे नवयुवक के हाथों अपनी पराजय की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। उसके बाद जब पराजय हो ही गई और वे बन्धन में पड़ ही गये, तब तो उन्होंने सोचा था कि अब श्रीपाल उनसे भयानक बदला लेगा। उसके प्रति उन्होंने जो अन्याय किया था, वह उन्हें याद था, ज्ञात था। अतः उनका यह विचार करना स्वाभाविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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