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________________ पुण्यपुरुष २५७ ही था कि श्रीपाल उन्हें कड़ी से कड़ी सजा देगा। उन्हें भीषण रूप से अपमानित करेगा। उन्हें जला-जलाकर, तिल-तिलकर मरने के लिए छोड़ देगा। अजितसेन की कल्पना का यह रंग था। किन्तु महामना, महानात्मा श्रीपाल महाराज ने तो ऐसा कुछ भी नहीं किया। उल्टे पूज्यभाव से उनका सत्कार किया तथा राज्य भी लौटा देने का प्रस्ताव किया। यह देखकर महाराज अजितसेन गहन विचारों के अतल-तल में डूब गये। और जब वे उस अतल विचार-लोक से उबरकर ऊपर आये तब तक उनके लिए सृष्टि बदल चुकी थी। वे अब एक छोटे-से बालक का राज्य हड़प लेने वाले लोभी,अत्याचारी, अनाचारी, अहंकारी, क्रूर राजा अजितसेन नहीं थे। वे अब थे-मुनि अजितसेन ! उस अल्प विचार-काल में ही उन्होंने गहन विचार किया था-अरे, मेरी बुद्धि को क्या हो गया था ? मैंने एक बालक के राज्य को हड़प लिया था ? हाय ! गोत्र-द्रोह करने के कारण मेरी कीत्ति का क्षय हुआ। राजद्रोह करके मैंने नीति का नाश किया। बाल-द्रोह करके मैंने अपनी सद्गति के मार्ग को अवरुद्ध किया । इतने-इतने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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