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पुण्यपुरुष
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"जो आज्ञा, महाराज ! कल प्रातःकाल ही कूच के नगाड़े बज उठेंगे ।
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कौन जाने इस अभागी मानव जाति ने युद्ध की विभीषिका का आविष्कार किस युग में किया था, किन्तु एक बार जब यह अग्नि भड़क उठती है तब फिर उसे शांत करना कठिन हो जाता है । स्वयं आत्मविनाश करता हुआ मानव भी इसे सदा-सदा के लिए तिलांजलि क्यों नहीं दे देता, यह समझ से परे की बात है ।
श्रीपाल महाराज का सैन्य अजितसेन के सैन्य से टकरा रहा था और दिशाएँ ' त्राहि-त्राहि' पुकार रही थीं। पदाति सैनिक पदातियों से भिड़े हुए थे । अश्वारोही सैन्य अश्वारोही सैन्य को खूंदे डाल रहा था । रथी रथियों से मुठभेड़ कर रहे थे । गजदल गजदल से टकरा रहे थे, मानों अनेक विशालकाय पर्वत एक दूसरे से टकरा रहे हों ।
भीषण था वह संग्राम | किन्तु श्रीपाल महाराज का सैन्य इतना सुव्यवस्थित था कि युद्ध का अन्त शीघ्र ही आ गया । अजितसेन के सैन्य में निराशा भर गई और निराशा ने उसमें भगदड़ मचा दी ।
अपनी सेना को मार खाकर जिधर जिसका सींग समाए उधर ही भागता देखकर स्वयं अजितसेन युद्धक्षेत्र में उतर पड़ा । वृद्धावस्था होते हुए भी वह बड़े पराक्रम
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