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एक दिन मंत्री मतिसार ने उपयुक्त समय देखकर श्रीपाल महाराज से कहा. "महाराज ! आपने इस जीवन में अनन्त यश तथा ऋद्धि-सिद्ध प्राप्त कर ली है। अनेक राज्य आपके अधीन हैं । कुल-परिवार से भी आप सम्पन्न तथा सानन्द हैं। किन्तु एक कार्य आपके लिए अब भी शेष रह गया है।"
"वह कौनसा कार्य है मंत्रिवर !"
"प्रभु ! आपके पिता के राज्य पर अब भी आततायी अजितसेन आरूढ़ है। आपका पुनीत कर्तव्य है कि आप अपने पैतृक राज्य को हस्तगत करें और अपनी प्रजा को सुखी करें, जोकि अजितसेन के शासन में अनेक प्रकार के कष्ट भोग रही है। एक प्रकार से यह आप पर अपने स्वर्गीय पूज्य पिताजी का ऋण है। आपको इस ऋण से भी अब उऋण हो जाना चाहिए।"
मतिसार का यह कथन उचित था। महाराज श्रीपाल ने इसे स्वीकार किया। किन्तु कहा
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