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________________ २४८ पुण्यपुरुष घर में, अपने ही माता-पिता और स्वजन-सम्बन्धियों के समक्ष नटी के रूप में मैं कैसे रहती ? अतः आज मैंने स्वयं को प्रकट कर ही दिया। ___"पिताजी ! आज मैं अच्छी तरह जान गई हूँ कि मुझे जो कुछ भी दुख भोगने पड़े हैं वे स्वयं मेरे अपने ही कर्मों के कारण। क्योंकि आपने तो अपनी जान में मुझे अच्छी तरह ब्याहा था। किन्तु मेरा मिथ्यावाद और मेरे अशुभ कर्म मुझे इस दुखद स्थिति में ले गये। ___"पिताजी ! मैनासुन्दरी वास्तव में हमारे कुल का दीपक है । वह एक कल्पवृक्ष के समान है, जबकि मैं एक विषवृक्ष हूँ। जैनधर्म में उसकी श्रद्धा ही उसके सखी जीवन का सार है, यह बात मैं आज अच्छी तरह समझ गई हूँ और आपने भी यह देख ही लिया है। वास्तव में मैनासुन्दरी दोनों कुलों को प्रकाशित करने वाली मणिदीपिका ही है।" __ इतना कहकर सुरसुन्दरी ने अपनी कथा समाप्त की। सब लोग उसे समझा-बुझाकर और दुखमय अतीत को भूल जाने के लिए कहकर राजमहलों में ले गये। राजा प्रजापाल को उनकी खोई हुई बेटी मिल गई। उन्हें सच्ची सम्यक्त्व दृष्टि भी मिल गई। वह नाटक किसी अन्य चरण से आरम्भ होकर किसी भन्य ही सुखद चरण पर समाप्त हुआ। शीघ्र ही शंखपुर के लिए दूत भेजकर राजा अरिदमन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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