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पुण्यपुष २४५ कहँ मालव कहँ शंखपुर, कहँ बब्बर कहँ नट्ट । नाच रही सुरसुन्दरी, विधि अस करत अकाज॥
नटी के दुखी स्वर में यह दोहा सुनते ही राजा प्रजापाल ने बड़े ध्यान से उसे देखा । वे सोचने लगे-'सुरसुन्दरी ! यह तो मेरी प्यारी बेटी का ही नाम है जिसे मैंने शंखपुर के राजा अरिदमन के साथ ब्याहा था। फिर यह नटी क्या कह रही है ? इसकी सूरत भी बिलकुल मेरी बेटी से ही मिलती है । क्या........क्या ऐसा भी हो सकता है कि यह नटी मेरी बेटी सुरसुन्दरी ही हो?'
राजा प्रजापाल यह विचार कर ही रहे थे कि उस नटी से रहा न गया। वह बड़े ही आर्तस्वर में "माँ, माँ" कहती हुई मंच से उतरकर रानी सौभाग्यसुन्दरी के पास गई और उससे लिपटकर सिसक-सिसककर रोने लगी।
वस्तुतः रंग में भंग हो गया। उपस्थित समस्त समुदाय ने जब राजकुमारी सुरसुन्दरी को पहिचान लिया तो वह दुख के कारण स्तब्ध रह गया।
राजा प्रजापाल तथा रानी सौभाग्यसुन्दरी के दुख का तो वर्णन ही कैसे किया जा सकता है ? अपनी प्यारी बेटी, एक राजकुमारी को इस प्रकार एक सामान्य नटी की स्थिति में देखकर उनका कलेजा फट गया। हृदय में वेदना के तप्त शूल चुभने लगे। वे किंकर्तव्यविमूढ़ अपनी बेटी को दुलारने लगे। उनके मुख से कोई शब्द निकल नहीं सका।
उस दुखद स्थिति को महाराज श्रीपाल ने सम्हाला ।
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