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२४२ पुण्यपुरुष
सुन्दर, सजे हुए रथों में आरूढ़ महाराज प्रजापाल, महाराज श्रीपाल, रानी कमलप्रभा, मैनासुन्दरी तथा श्रीपाल की अन्य सभी रानियाँ जब राजपथ से होकर धीरे-धीरे राजमहलों की ओर बढ़े तब उज्जयिनी नगरी आनन्द की उत्ताल तरंगों में आन्दोलित हो उठी।
राजा प्रजापाल का अन्तःपुर तो देवांगनाओं की क्रीड़ास्थली ही बन गया। मैनासुन्दरी की माता रूपसुन्दरी की प्रसन्नता का तो कोई पार ही नहीं था । अन्य राजरानियां भी उतनी ही प्रसन्न और उल्लसित थीं। महाराज श्रीपाल की अन्य सभी रानियाँ तथा राजा प्रजापाल के अन्तःपुर की अन्य रानियाँ-ये सभी मिलकर दिन-रात एक महोत्सव का-सा वातावरण बनाये हुए थीं। मैनासुन्दरी की विमाता सौभाग्यसुन्दरी का हृदय भी परिवर्तित हो चुका था । उसके हृदय का मिथ्यात्व-कलुष भी दूर हो गया था और वह भी जिन भगवान की पक्की आराधिका बन गई थी। __इस प्रकार राजा प्रजापाल के अन्तःपुर में से उठकर जैनधर्म की जय-जयकार का मंगलघोष समस्त उज्जयिनी नगरी में व्याप्त हो रहा था ।
इस आनन्दोत्सव को और भी उल्लासमय बनाने के लिए महाराज श्रीपाल ने एक नाटक खेले जाने का आदेश
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