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पुण्यपुरुष २४१ में किसी का भी अभिमान नहीं रहा। प्रत्येक प्राणी स्वयं अपने ही कर्मों के शुभाशुभ परिणामों को भोगता है। कोई किसी को कुछ दे नहीं सकता। कोई किसी का कुछ ले नहीं सकता-स्मरण आता है न आपको?" .
"हाँ बेटा श्रीपाल ! याद है, मुझे वे सब बातें याद हैं। और आज उन्हें याद करके मैं स्वीकार करता हूँ कि मैंने भूल की थी-भयानक भूल की थी। उस समय अपने अभिमान में मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि जिस कोढ़ी के साथ मैं मैना का विवाह कर रहा हूँ वह न केवल कभी रोगमुक्त ही हो जायगा, बल्कि एक दिन राजाओं का भी राजा बनकर सूर्य की भाँति जगमगायेगा........।" _ "बस कीजिए, पिताजी ! अब हमें अधिक लज्जित न कीजिए और हमने जो अपराध किया है इसके लिए हमें क्षमा कीजिए।"
"तुमने कोई अपराध नहीं किया बेटे श्रीपाल ! बल्कि तुमने मेरा बहुत बड़ा उपकार ही किया है। तुमने मेरी आँखें खोल दी हैं। सदा-सदा के लिए मेरे हृदय से अभिमान के विष को निकाल बाहर किया है । तुम और मैना दोनों धन्य हो, श्रीपाल !"
"यह सब जिनप्रभु की कृपा है, पिताजी ! आइये, अब भीतर शिविर में पधारिए।"
"अरे कौन-सा शिविर ? चलो, चलो, राजमहलों में चलो तुम लोग । तुम्हारे सैनिकों की समुचित व्यवस्था हो जायगी। चिन्ता न करो। चलो महलों में।"
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