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________________ २४० पुण्यपुरुष इस रूप में जब महाराज प्रजापाल श्रीपाल के शिविर में पहुँचे तब उन्हें देखकर महाराज श्रीपाल तथा मैनासुन्दरी एकदम आगे बढ़े। उन्होंने प्रणाम किया । श्रीपाल ने कुल्हाड़ी उनके हाथ से लेकर एक ओर रख दी और अत्यन्त विनयपूर्वक कहा " महाराज प्रजापाल ! पिताजी! मेरे इस एक अपराध को क्षमा करें........।" महाराज प्रजापाल ने भी अब श्रीपाल और मैना सुन्दरी को पहचान लिया था । उन्होंने कहा — "श्रीपाल ! मैनासुन्दरी ! अरे, यह तुम लोग हो ? तब फिर तुम लोगों ने यह क्या नाटक रचा है ? क्यों उज्जयिनी को घेरा और क्यों मुझे इस प्रकार अपमानित करने की योजना की ?" श्रीपाल ने अत्यन्त विनयपूर्वक उत्तर दिया "पिताजी ! समर्थ से समर्थ तथा गुणवान से गुणवान मनुष्य भी अपने अभिमान के कारण पतन के गर्त में जा गिरता है । आप प्रत्येक दृष्टि से पूज्य हैं । किन्तु आपके मन में जो अभिमान घर करके बैठा है वही आपका वास्तविक शत्रु है । हम उस शत्रु का सर्वनाश करना चाहते थे । स्मरण कीजिये, आपने हमारे विवाह से पूर्व मैना से क्या प्रश्न किये थे और जिनधर्म में अटूट श्रद्धा रखने वाली इस मैना ने उन प्रश्नों के क्या उत्तर दिये थे । उसने कहा कहा था कि पिताजी ! आप अभिमान न करें। इस संसार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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