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पुण्यपुरुष
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राजा स्वयं भी इस स्थिति को जान रहे थे । किन्तु वे आसानी से अपने अभिमान को भी नहीं थे । वे बोले
त्याग पा रहे
" मन्त्रिगण ! कहिए, आप लोगों की क्या राय है ?"
प्रधान अमात्य के माथे ही मन्त्रिमण्डल की राय से राजा को अवगत कराने का दायित्व आ पड़ा था । उसने हाथ जोड़कर निवेदन किया
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"महाराज ! अपराध क्षमा हो । कोई मार्ग हम लोगों को दिखाई नहीं देता।"
" अर्थात् मैं उस आततायी राजा की शर्त को स्वीकार करके एक साधारण श्रमिक की भाँति उसके शिविर तक जाऊँ ? क्या आप लोगों की यही सम्मति है ?"
"प्रभु ! विषाद न करें । समय-समय की बात है । राजनीति भी यही कहती है कि यदि शत्रु प्रबल हो तो समय विशेष के लिए उसके सामने झुक जाना ही श्रेयस्कर है । सर्वनाश से तो यह बेहतर ही है ।"
।
"ठीक है, ठीक है । मैं समझ गया । आज मुझे अपने राजगौरव को ताक पर रखकर उस राजा की शर्त को मानना ही होगा । लाइये, मँगाइये कुल्हाड़ी, जो काम करना ही है उसमें फिर विलम्ब कैसा ?"
उज्जयिनी नगरी ने उस दिन वह अद्भुत दृश्य आखिर देखा ही - उनका राजा कन्धे पर कुल्हाड़ी रखे सिर झुकाए अकेला चला जा रहा था ।
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