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________________ २३८ पुण्यपुरुष "महाराज ! यह समय क्रोध करने का नहीं है । हमारे महाराज की सैन्य शक्ति अपार है और स्वयं हमारे महाराज भी अपौरुषेय बल धारण करने वाले हैं। अतः जैसा कि मैंने अभी निवेदन किया या तो उनकी शर्त को आप स्वीकार कर लें और फिर सुखपूर्वक अपना राज्य भोगें, या युद्ध के लिए प्रस्तुत हो जायँ । यदि युद्ध करने का ही आप निश्चय करेंगे तो उसका परिणाम इतना भयंकर होगा महाराज कि आपके पास फिर पछताने के अतिरिक्त कुछ शेष नहीं रहेगा । मुझे इतना ही संदेश आपको देना था महाराज !" "ठीक है तुम्हारा संदेश हमने सुन लिया। अब तुम जा सकते हो ।" - महाराज प्रजापाल ने उसी प्रकार क्रोध और खोझ के साथ कहा । दूत ने महाराज को नमन किया और जाते-जाते इतना और कहा " आपके उत्तर की प्रतीक्षा हमारे महाराज मध्याह्न तक करेंगे महाराज ! उसके पश्चात् . - उसके अन्तिम शब्द किसी ने नहीं सुने । मन्त्रिगण तत्परता से विचार-विमर्श में डूब गये । सबकी एक ही राय बन रही थी - शत्रु महाशक्तिशाली है । उसके साथ युद्ध करना सर्वनाश को निमंत्रण देना है। अतः अब वे मौन होकर महाराज प्रजापाल द्वारा ही कुछ कहे जाने की प्रतीक्षा करने लगे । Jain Education International יין For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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