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पुण्यपुरुष
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शत्रु का सामना करने में समर्थ नहीं-ऐसी स्थिति में आखिर किया क्या जाय ?
राज प्रजापाल की मंत्रिपरिषद् इसी चिन्तन में डूबी हुई थी। उसी समय द्वारपाल ने सूचना दी
"महाराज ! शत्रु का दूत द्वार पर उपस्थित है।"
"उसे आने दो।"- राजा ने बुझे, चिन्तित मन से आज्ञा दी।
श्रीपाल महाराज के दूत ने कक्ष में प्रवेश किया, महाराज प्रजापाल को नमन किया और आज्ञा की प्रतीक्षा में प्रस्तर-मूर्ति की भांति मौन खड़ा रह गया।
राजा प्रजापाल ने कहा
"कहो दूत ! तुम अवध्य हो। निस्संकोच अपने राजा का संदेश हमें सुनाओ।"
"महाराज प्रजापाल ! हमारे महाराज ने आप को सन्देश कहलवाया है कि या तो आप अकेले, नंगे पैर, एक कुल्हाड़ी कंधे पर रखकर नगर के बाहर उनके शिविर तक एक सामान्य श्रमिक की भांति आयें या फिर........" __इतना सुनते-सुनते ही महाराज प्रजापाल क्रोध से भर उठे। उनके चेहरे पर रोष छा गया। आँखों से अंगारे झरने लगे । वे गरज उठे---
"या फिर क्या कर लेगा तुम्हारा राजा?" दूत ने शान्तिपूर्वक अपनी बात आगे कही
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