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________________ २३६ पुण्यपुरुष कंधे पर कुल्हाड़ी रखकर एक सामान्य श्रमिक की भांति आपके शिविर में आकर आपसे मिलें। यदि वे ऐसा करते हैं तो माना जा सकता है कि उन्होंने अपने अभिमान का त्याग कर दिया है।" - सोचकर श्रीपाल ने कहा- "बिलकुल ठीक ! मैं ऐसा ही संदेश राजा प्रजापाल से पास भिजवाए देता हूँ। साथ ही प्रभु से प्रार्थना भी करता हूँ कि वे इस बात को स्वीकार कर लें और निरर्थक रक्तपात तथा हिंसा से हम सभी को बचा लें।" "पूज्य पिताजी को पुण्य के पथ पर अग्रसर कराने वाली इस पवित्र प्रार्थना में मैं भी आपके साथ है।"मैनासुन्दरी ने कहा। राजा प्रजापाल अपनी मंत्रिपरिषद् से घिरे बैठे थे। राजा सहित शेष सभी मंत्रियों के चेहरे गम्भीर थे। चिन्ता उनके हृदयों में शूल के समान गड़ी जा रही थी-आक्रमणकारी राजा जो भी हो, परम शक्तिशाली है । उसका सैन्य विशाल है, सुव्यवस्थित है। इतने शक्तिशाली शत्रु से लोहा लेना असम्भव है। अर्थात् युद्ध किया तो जा सकता है, किन्तु सर्वनाश और पराजय निश्चित है। इसका सीधासादा अर्थ यही है कि युद्ध निरर्थक है। तब किया क्या जाय ? शत्रु नगरी को घेरे बैठा है । किसी भी क्षण युद्ध के नगाड़ें बज पकते हैं। हमारी सेना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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