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________________ पुण्य पुरुष २३५ का भोग करता है । अन्य कोई व्यक्ति उसे सुख या दुख नहीं दे सकता । बस, यही बात तुम्हारे पिताजी को बुरी लगी थी। वे अभिमानी थे । स्वयं को सर्वशक्तिमान मानते थे । कहते थे कि वे जो चाहें सो कर सकते हैं । जिसे चाहे राजा और जिसे चाहे उसे भिखारी बना सकते हैं। याद है न ?" "हाँ, प्रियतम ! याद है, खूब अच्छी तरह याद है । काश, पिताजी यह अभिमान-भावना त्याग दें ! " "मैं यही प्रयत्न करना चाहता हूँ । इसीलिए मैंने स्वयं को अब तक प्रकट नहीं किया है । तुम्हारे पिताजी को अभी तक यह ज्ञात नहीं होने दिया है कि उनकी नगरी का घेरा किस राजा ने डाला है ।" मैनासुन्दरी ने कुछ सोचते हुए कहा "यह तो ठीक है, प्रिय ! किन्तु अब आपकी क्या योजना है ?" - "यह तुम्हीं बताओ कि तुम्हारे पिताजी के अभिमान को कैसे नष्ट किया जाय ? सोचो, सोचकर बताओ ।" मैनासुन्दरी ने कुछ विचार किया और फिर प्रस्ताव किया " प्राणनाथ ! बिना रक्तपात के आपकी उद्देश्य पूर्ति हो जाय इसके लिए मुझे तो यही रास्ता दिखाई देता है कि आप उन्हें यह संदेश भेजें कि वे एकाकी, नंगे पैर, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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