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________________ पुण्यपुरुष २३३ श्रद्धा थी। कर्म-परिणाम पर पूरा भरोसा था। अतः मेरे मन में कहीं कोई दुविधा नहीं थी। मैंने अपनी आत्मा की सम्पूर्ण-श्रद्धा तथा भक्तिपूर्वक आपको स्वीकार किया था। ___ "और आज देखिए न, मेरी धर्म श्रद्धा ने मुझे आज कितना सुखी बना दिया है ! मुझे तो लगता है कि इस भारत-भूमि पर आज मुझसे अधिक सौभाग्यशालिनी अन्य कोई स्त्री नहीं होगी। आपके जैसे महापुरुष मेरे सौभाग्यनाथ हैं। माता कमलप्रभा जैसी ममतामयी सास हैं। और मुझे कभी कोई कष्ट न हो, मुझे अकेलेपन का अनुभव न हो इसीलिए आप अपने साथ मेरी बहुत-सी छोटी बहनों को भी लेते आए हैं।" __यह सुनकर श्रीपाल महाराज को थोड़ी छेड़छाड़ करने की सूझी। यह प्रेमपूर्ण छेड़छाड़ पति-पत्नी के जीवन में अमृत घोल दिया करती है । उन्होंने कहा "तुम्हारी इतनी सारी भगिनियां में ले आया हूँ यह कहकर तुम मुझ पर व्यंग कर रही हो न ?" "नहीं, नहीं, ऐसा स्वप्न में भी विचार न कीजिए। मैं आप पर व्यंग करके पाप की भागी क्यों बनूंगी? और फिर मुझे तो अपनी बहनें मिल गई हैं, जिनके साथ मेरा समय हंसते-खेलते व्यतीत रहेगा। जिस समय आप राज्यकार्य में व्यस्त रहा करेंगे उस समय हम लोग भी सब मिलकर आनन्द किया करेंगी। "लेकिन अब इस चर्चा को छोड़िए और यह बताइये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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