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पुण्यपुरुष २३१ रानी कमलप्रभा उठकर चली तो मैनासुन्दरी तुरन्त उन्हें टोकते हुए बोली__"माताजी ! आप बैठिए, खाने-पीने के लिए मैं लिए आती हूँ........." ___ "अरे रहने दे, तू तो जनम भर उसे खिलाती-पिलाती रहेगी । आज तो मैं ही खिलाऊँगी।"-कहते-कहते रानी उस कक्ष से बाहर हो गयी।
बरसों के बिछुड़े पति-पत्नी समझ गये कि माता का अभिप्राय क्या था । उन दोनों ने एक-दूसरे की आँखों में गहरे-गहरे झाँका और दोनों हँस पड़े।
"कैसी हो मैना ?" "कसे हैं नाथ ?"
इसी प्रकार की कुछ बातें शब्दों में तथा आँखों में ही हुईं और फिर कमलप्रभा लौट आई।
बहुत थोड़ा-सा कुछ खा-पीकर श्रीपाल ने अपनी माता से कहा___ "माँ ! अब मेरे शिविर में चलो। वहीं सब बातें होंगी। ढेर सारी । अपनी बहुओं से भी मिल लो। उज्जयिनी-प्रवेश का विचार कल प्रातःकाल किया जायगा।"
"अरे हाँ, यह तो मैं भूलो ही जा रही थी। नगरी के सब द्वार तो बन्द हैं। कड़ा पहरा है। तू आया किस
तरह ?"
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