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पुष्यपुरुष
संध्या ढल रही थी। नगर के सभी द्वार बन्द थे । श्रीपाल महाराज को अपनो माता और मैनासुन्दरी से मिलने की आतुरता थी। राजा प्रजापाल की उन्हें कोई चिन्ता नहीं थी। वे उनसे युद्ध करना भी नहीं चाहते थे। हाँ, राजा के अहंकार को वे अवश्य ही नष्ट करना चाहते थे कि फिर भविष्य में वे कभी अहंकार न करें।
अतः उन्होंने अपने सैन्य को नगरी से बाहर ही शान्तिपूर्वक पड़ाव डालने का आदेश दिया और स्वयं किसी गुप्त मार्ग से अकेले ही नगरी में प्रविष्ट होकर अपने आवास की ओर चल पड़े।
इस समय तक अन्धकार व्याप्त हो चुका था । श्रीपाल महाराज सभी सेवकों की दृष्टि बचाकर चुपचाप उस कक्ष के द्वार तक पहुँच गये जिस कक्ष में दो महिमामयी महिलाएँ बैठी हुई वार्तालाप कर रही थीं।
पाठक सहज ही अनुमान कर सकते हैं कि वे दोनों महिलाएँ कौन हो सकती थीं-एक थी स्वयं महाराज श्रीपाल की ममतामयी माता कमलप्रभा तथा दूसरी थी महाराज की पटरानी मैनासुन्दरी। __ श्रीपाल महाराज ने चपचाप द्वार की सन्धि में से भीतर उन दोनों को देखा। यद्यपि उनकी इच्छा हो रही थी कि वे क्षणमात्र का भी विलम्ब न कर दौड़कर अपनी माता से लिपट जायें। किन्तु वे धीर पुरुष थे। उन्होंने कुछ क्षण के लिए संयम रखना ही उचित समझा और वे
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