SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुण्यपुरुष २२५ उऋण होना चाहता हूँ। कृपा कीजिए । मेरी विनती को न ठुकराइये।" ___यह सुनकर श्रीपाल ने एक बार तिलकसुन्दरी की ओर देखा । उसके नेत्रों से उसके नेत्र मिले। राजकुमारी के नेत्रों में श्रीपाल ने प्रार्थना, प्रेम, समर्पण, लज्जा-जाने क्या-क्या भाव एक ही क्षण में पढ़ लिये। फिर उसने राजा महासेन से कहा "जैसी आपकी और राजकुमारी की इच्छा। किन्तु समय 'भाग रहा है। मुझे शीघ्र ही मालव देश पहुँच जाना है।" राजा महासेन श्रीपाल के इस उत्तर को सुनकर इतने प्रसन्न हो गये थे मानों उन्हें जीवन की सम्पूर्ण सिद्धि ही प्राप्त हो गई हो । उल्लसित भाव से बोल उठे___ "आप चिन्ता न करें। विवाह-विधि में अधिक समय नहीं लगेगा। मैं अभी सारी व्यवस्था किये देता हूँ। आप कृपा कर हमारे साथ राजमहल में पधारिए। आइये श्रीमान् ! पधारिए।" __ राजकुमारी तिलकसुन्दरी के भाग खुल गये । विवाहविधि शीघ्र, सानन्द सम्पन्न हुई। कहाँ तो वह मृत्यु का ग्रास हो चली थी और कहाँ उसे श्रीपाल महाराज के समान युग के सर्वश्रेष्ठ महापुरुष की अर्धागिनी बनने का सौभाग्य और गौरव प्राप्त हो गया। वह निहाल हो गई। विधि की लीला इसे नहीं तो फिर किसे कहते होंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy