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पुण्यपुरुष
भर आईं। उदास मन से उन्होंने महाराज श्रीपाल को नमस्कार किया । राजा महासेन किसी प्रकार स्वयं को संयत करके कहने लगे --
"परम पुण्यवान महाराज श्रीपाल महाभाग ! क्षमा चाहता हूँ कि मैं आपकी सेवा में उपस्थित न हो
सका........।"
किन्तु महाराज श्रीपाल ने राजा महासेन के कन्धे पर प्रेमपूर्वक हाथ रखकर कहा
"मुझे सब कुछ ज्ञात हो गया है । आप धैर्य रखिए । मुझे एक बार प्रयत्न करने दीजिए ।"
इतना ही कहकर श्रीपाल सीधे राजकुमारी तिलकसुन्दरी के शव के समीप जा बैठे । कुछ क्षण उन्होंने आँखें मूंदकर नवकार मंत्र का जाप किया। फिर देवप्रदत्त अपनी मणिमाला को एक जल से भरे हुए पात्र में डुबोकर उस जल के छींटे मृत राजकुमारी के मुरझाए हुए मुख पर डाले ।
प्रभु की कृपा अनन्त हैं । वे छींटे किसी सामान्य जल के छींटे न होकर अमृत के छींटे सिद्ध हुए ।
पुण्यवान श्रीपाल महाराज के कर कमलों से राजकुमारी के मुख पर अमृत का सिंचन हुआ ।
और राजकुमारी की पलकें झपकने लगीं । धीरे-धीरे उसने अपने नेत्र पूरी तरह खोल दिये ।
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