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________________ पुण्यपुरुष २२१ विश्राम हेतु वहाँ कुछ देर के लिए रुके । किन्तु यह देखकर श्रीपाल महाराज को आश्चर्य हुआ कि उस छोटे-से राज्य का राजा भी उनसे भेंट करने उपस्थित नहीं हुआ । उन्होंने अपने मन्त्री से इस विषय में पूछा तो उत्तर मिला - "महाराज ! इस राज्य का राजा बहुत ही सज्जन और प्रजावत्सल है । आपका स्वागत करने वह अवश्य ही उपस्थित होता, किन्तु दुर्भाग्यवश वह एक विपत्ति में फँस गया है । उसकी एकमात्र कन्या सर्पदंश से मृत हो गई है। महाराज महासेन अपनी उसी कन्या के अन्तिम संस्कार में व्यस्त हैं और बहुत दुखी हैं। यह सुनकर श्रीपाल महाराज भी उदास हो गये । महाराज महासेन के प्रति उनके हृदय में गहन सहानुभूति उत्पन्न हुई । कुछ समय तक वे चुपचाप कुछ विचार करते रहे, फिर बोले " मंत्रिवर! मुझे उस स्थान पर ले चलिए जहाँ उस कन्या का दाह संस्कार किया जाना है । मैं उसमें सम्मिलित होना चाहता हूँ, और यदि संभव हो, जिनदेव की कृपा हो तो उस कन्या के जीवन को बचा लेने का एक बार प्रयत्न भी करना चाहता हूँ ।" व्यवस्था तत्काल हो गई और श्रीपाल महाराज क्षणमात्र का भी बिलम्ब न करके दाहस्थल पर पहुँच गये । उन्हें इस प्रकार अचानक वहाँ उपस्थित देखकर महाराज महासेन तथा महारानी तारासुन्दरी की आँखें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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