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________________ २१८ पुण्यपुरुष ___ "देखो श्रीपाल ! अब तुम इसे मेरी इच्छा समझो अथवा आदेश। किन्तु यह राज्य तो अब तुम्हे ही सम्हालना है । अपनी स्वीकृति दो। मैं आज ही तुम्हारे राजतिलक की घोषणा करा देना चाहता हूँ और शीघ्र ही शुभ मुहूर्त में यह मंगल कार्य सम्पन्न कर देना चाहता हूँ। बोलो, क्या तुम मेरी इतनी सी भी इच्छा को पूरी नहीं होने दोगे ?" ____अब श्रीपाल के पास अपनी स्वीकृति देने के सिवाय कोई मार्ग नहीं था। उसने इतना ही कहा__ "पिताजी ! आपका आदेश श्रीपाल अपने मस्तक पर धारण करता है।" यह सुनकर राना वसुपाल एकदम प्रसन्न हो गये। उन्होंने तुरन्त अपने आसन के समीप ही लगे हुए स्वर्णघंट पर चोट की । द्वारपाल हाथ जोड़कर उपस्थित हुआ। "अमात्यवर को शीघ्र भेजो।"- राजा ने आदेश दिया। अमात्य के आने पर राजा ने अपनी हार्दिक प्रसन्नता की खुली अभिव्यक्ति करते हुए कहा "नगर में घोषणा करा दीजिए अमात्यवर कि शीघ्र ही शुभ मुहूर्त में श्रीपाल का राजतिलक होगा। जाइये, शीघ्रता कीजिए।" _ "जो आज्ञा महाराज !" कहकर अमात्य जब वहां से जाने लगे तब राजा वसुपाल ने पुनः कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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