________________
पुण्यपुरुष २१७ अपना पुत्र स्वीकार कर रहा हूँ। और अब मैं तुमसे एक प्रार्थना करना चाहता हूँ। आशा है तुम मुझे निराश नहीं करोगे।" ..यह सुनकर श्रीपाल भाव-विभोर हो गया। उसने कहा__ "बचपन में ही दुर्भाग्यवश मैंने अपने पिताजी को खो दिया था । दैव की इच्छा प्रबल है । किन्तु आपने मुझे सदा ही पुत्रवत् स्नेह दिया है । अतः मैं तो आपको अपना पिता ही मानता हूँ । अतः पिताजी ! आप आज्ञा दीजिए कि मुझे क्या करना है। पिता को पुत्र से प्रार्थना करने की क्या आवश्यकता ? ऐसा कहकर मुझे लज्जित न कीजिए। मैं आपका आदेश सुनने के लिए उत्कण्ठित हूँ।"
"बेटे ! तुम जैसे सुयोग्य, ज्ञानी, वीर तथा धर्मनिष्ठ पले-पलाये पुत्र को प्राप्त करके मैं आज धन्यता का अनुभव कर रहा हूँ। अपुत्री रह जाने का मेरा सारा दुख दूर हो गया है। अब मेरी आयु भी वानप्रस्थ ग्रहण करने योग्य हो गई है। अतः मैं चाहता हूँ कि तुम विधिवत् मेरे इस राज्य को ग्रहण कर लो। तुम यदि यह स्वीकार कर लोगे तो मेरी अन्तिम चिन्ता भी दूर हो जायगी।" ___यह प्रस्ताव सुनकर श्रीपाल कुछ विचार में पड़ गया। फिर उसने अनेक प्रकार से राजा वसुपाल से यही आग्रह किया कि वे अभी राज्यत्याग न करें। किन्तु राजा वसुपाल तो निश्चय कर चके थे। उन्होंने यही कहा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org