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राजा-रानी का जयघोष स्थान-स्थान पर उठ रहा था। गीतों के स्वर वातावरण में गूंज रहे थे। इन मधर गीतों में इतना निश्छल आनन्द छलक रहा था कि कोई जड़ से जड़ व्यक्ति भी उनके सुख-स्पर्श से अछूता नहीं रह सकता था।
किन्तु एक था अजितसेन ।
वह अजितसेन अपने आवास में चक्कर काट रहा था और इन आनन्ददायक ध्वनियों को सुन-सुनकर निराशा और क्रोध से जला-भुना जा रहा था।
कुछ समय इसी प्रकार व्यतीत हुआ और फिर उसने अपने एक सेवक को पुकारा-- .
"अबे धूमल ! कहाँ मर गया तू ?"
"हाजिर हूँ मालिक ! अभी मरा नहीं हैं। लेकिन अब मरने में अधिक कसर भी नहीं है अन्नदाता !"
"क्या मतलब ? क्या बक रहा है ?"
"बक नहीं रहा हूँ मालिक ! ठीक ही कह रहा हूँ। और जो कुछ कह रहा हूँ उसे आप भी अच्छी तरह जानते हैं । वरना आपके चेहरे पर ये जो चिन्ता की काली बदली घिरी हुई है वह क्यों होती?"
धूमल अजितसेन का मुंहलगा सेवक था। सभी प्रकार के कुटिल कर्मों में अजितसेन का वह दाहिना हाथ भा। अपने मालिक की रग-रग से वह परिचित था। किस
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