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________________ पुण्यपुष २१३ बड़ी विचित्र वस्तु है यह भाग्य ! इस संसार में प्रतिदिन होने वाली अनेक उथल-पुथलें सब इस भाग्य के ही मत्थे मढ़ दी जाती हैं । भाग्य को कोसते हुए लाखों मनुष्य भूखे पेट ही सो रहते हैं अथवा अधनंगे घूमते रहते हैं, तथा भाग्य की जय-जयकार करते हुए अनेक सामर्थ्यवान व्यक्ति जीवन के समस्त सांसारिक सुखों का भोग करते हैं। । वस्तुतः आज तक किसी ने इस भाग्य को कहीं देखा नहीं, इसे जाना नहीं-कोई इसे पकड़ पाया नहीं। किन्तु जो कुछ भी हो, राजकुमारी जयसुन्दरी परम सौभाग्यवान थी। राधावेध का आयोजन राजा पुरन्दर द्वारा कर दिया गया था। अनेक राजा-महाराजा, महत्त्वाकांक्षी वीर युवक, अपने भाग्य को आजमा देखने वाले रूप-लोलुपये सब आए ; किन्तु राधा की बाँयी आँख तो क्या, कोई उन घूमते चक्रों का भी भेदन न कर सका। लोग आते गये, अपना भाग्य आजमाते गये और लज्जित तथा निराश होकर लौटते गये। इसी के साथ-साथ बढ़ती चली जा रही थी राजारानी की चिन्ता भी। __ और तब राजा पुरन्दर की नगरी में एक दिन एक अति चपल, अति वेगवान, अति सुन्दर अश्व पर सवार होकर एक प्रतापी पुण्यवान महापुरुष आया-श्रीपाल । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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