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पुण्यपुरुष
कड़ाह रख दिया जाता है। जो भी व्यक्ति राधावेध करना चाहता है उसे उस कड़ाह में देखकर ऊपर दोनों ओर घूमते चक्रों के दाँतों के बीच में से क्षण-क्षण दीखने वाली इस पुतली की बायीं आँख को अपने तीर से छेदना होता है । उसी पुतली को राधा कहा जाता है और उसकी आँख का वेधन ही 'राधावेध' कहलाता है। "
"गुरुदेव ! यह तो बड़ा ही कठिन कार्य प्रतीत होता है ।"
"हाँ, बेटी ! यह विद्या सामान्य धनुर्धरों को प्राप्त नहीं होती । जैसा कि मैंने कहा, अर्जुन जैसे महान धनुर्धर ही इस विकट कार्य को कर सकते हैं। इस विद्या को सिद्ध करने के लिए बड़े मनोयोग, धैयं तथा कौशल की आवश्यकता होती है ।"
गुरुदेव की बात को जयसुन्दरी ने बड़े ध्यान से सुना । कुछ क्षण विचार किया तथा फिर उसने अपने मन में एक दृढ़ निश्चय कर लिया। निश्चय कर लेने के बाद उसने अपने गुरुदेव से कहा
"गुरुदेव मैंने एक निश्चय किया है। आज्ञा हो तो कहूँ ?"
"कहो बेटी ! निस्संकोच होकर बोलो। क्या निश्चय किया है तुमने ? मुझे विश्वास है कि मेरी शिष्या, मेरी बेटी, जो भी निश्चय करेगी वह शुभ ही होगा ।"
कुछ सकुचाते हुए जयसुन्दरी ने कहा
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