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२०१ पुण्यपुराच
समय संयोगवश राजकुमारी शृंगारसुन्दरी अपनी पाँच सखियों - पंडिता, विचक्षणा, सुलक्षणा, निपुणा तथा दक्षा के साथ राजउद्यान में ही क्रीड़ा कर रही थी। ये पाँचों सखी - कुमारियाँ भी राजकुमारी के समान ही जैनधर्म की ज्ञाता थीं तथा उसी के समान जिन प्रभु में प्रगाढ़ श्रद्धा रखती थीं । उन सबका एक ही निश्चय था- जो भी व्यक्ति राजकुमारी से विवाह करेगा, वही व्यक्ति उन पाँचों सखियों का भी पति होगा ।
श्रीपाल ने जब उद्यान में प्रवेश किया तब उसे देखकर राजकुमारी तथा उसकी सखियाँ चकित रह गईं। श्रीपाल के दिव्य स्वरूप को देखकर वे अपने नेत्रों के सौभाग्य को सराहने लगीं । कुछ संकुचित होते हुए भी उनमें से एक ने आगे बढ़कर श्रीपाल का स्वागत किया और उसके भागमन का प्रयोजन पूछा ।
श्रीपाल ने मुस्कुराते हुए कहा
"मुझे घूमने-फिरने का बहुत शौक है। घूमता - घामता इधर भी आ निकला । रास्ते में सुना कि आप लोगों की कुछ समस्याएं हैं । वे किसी प्रकार हल नहीं हो रहीं । यद्यपि मैं कोई बहुत बड़ा विद्वान् व्यक्ति तो नहीं हूँ, फिर भी सोचा कि शायद आप लोगों की समस्या का समाधान में जिनप्रभु की कृपा से कर सकूं। मुझे जैनधर्म तथा नवपद में अटूट श्रद्धा है ।"
उसका यह बिनम्र तथा साथ ही दृढ़ उत्तर सुनकर
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