SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुण्यपुरुष १६७ का जुगाड़ हो ही जाता है। किन्तु आप थके हुए होंगे। आपका अश्व भी थका होगा | आइये, पान्थशाला में भीतर पधारिए, विश्राम कीजिए। तब तक में आपके अश्व को दानापानी दिये देता हूँ । आप भीतर इस बड़े कमरे में पधारिए । बहाँ सब व्यवस्था है। हवा भी वहीं अच्छी आती है ।" इतना कहकर वृद्ध सेवक श्रीपाल के अश्व की देख-रेख में लग गया और श्रीपाल पान्थशाला के भीतर जाकर उस कमरे के वातायन में से बाहर के सुरम्य वातावरण को देखने लगा । उसी समय श्रीपाल को दूर क्षितिज पर कुछ धूल उड़ती हुई दिखाई दी । उसने सोचा कोई अन्य यात्री भी रात भर के आश्रय की खोज में इधर ही आ रहा है । थाड़ा हा दर में दौड़ते हुए अश्व की टापों की आवाज भी सुनाई पड़ने लगी और उसके कुछ ही पलों बाद एक अश्वाराही भी श्रीपाल के दृष्टि पथ में आ गया । अश्वारोही का चेहरा अन्धकार के झुटपुटे के कारण ठीक दिखाई नहीं दे रहा था । किन्तु उसके तीव्रगामी अश्व की गति बताती थी कि वह बड़ी शीघ्रता से आ रहा था। देखते ही देखते वह उस पान्थशाला के द्वार तक आ पहुँचा, कूदकर अश्व से नीचे उतरा और कुछ सोचतासा क्षणभर खड़ा रह गया । श्रीपाल उत्सुकतावश अपने कमरे से बाहर निकल आया और उस नवागन्तुक अश्वारोही के समीप जा पहुँचा और बोला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy