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१९६ पुण्यपुरुष गृहस्थ को कष्ट देने की बजाय यदि यह रात्रि नगर से बाहर किसी मन्दिर या पान्थशाला में ही व्यतीत कर दे तो कैसा रहे ? यही ठीक होगा। ऐसा सोचकर श्रीपाल ने इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई। कुछ ही आगे चलने पर उसे एक छोटी-सी पान्थशाला दिखाई दी।
श्रीपाल को वह छोटी-सी पान्थशाला अँच गई। वहाँ जाकर उसने अपने अश्व को एक वृक्ष से बांध दिया और इधर-उधर देखने लगा कि कोई व्यक्ति वहाँ है अथवा नहीं। किन्तु उसे खोजना नहीं पड़ा। पान्थशाला की दक्षिण दिशा में एक छोटी-सी कोठरी थी। श्रीपाल ने देखा कि उस कोठरी में से निकलकर एक वृद्ध पुरुष लाठी के सहारे उसी की ओर आ रहा है।
समीप आ जाने पर उस वृद्ध ने कहा
"महाभाग ! पधारिए। स्वागत है। आप तो कोई राजपुरुष प्रतीत होते हैं। नगर में नहीं पधारे ?"
वृद्ध की मीठी वाणी से श्रीपाल बहुत प्रसन्न हुआ। उसने उत्तर दिया
"बाबा ! रात हो चुकी है। नगर-द्वार बन्द हो गये होंगे। मुझे कोई जल्दी तो है नहीं, अतः सोचा कि आज रैन-बसेरा इस सुन्दर, शान्त पान्थशाला में ही कर लूं । क्या आप ही यहाँ की व्यवस्था देखते हैं ?"
. 'हाँ श्रीमान ! पीढ़ियों से मेरे परिवार में यही काम चल रहा है। राजा की कृपा से दो जून की रोटियों
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