SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुण्यपुरुष १९५ था.......खैर, यह स्वर्ण-मुद्रिका तुम अपने पास रखो, प्रवासी हो, कभी काम आयेगी। अच्छा, अब मैं चलता हूँ, संयोग हुआ तो फिर कभी मिलेंगे।" इतना कहकर और मूल्यवान मुद्रिका उस प्रवासी को देकर श्रीपाल कुछ सोचने-विचारते अपने महल की ओर लौट पड़ा। वह प्रवासी भी प्रसन्न होकर दूसरी दिशा में चल पड़ा। उसके मन में आशा जागी थी कि श्रीपाल जैसा महापुरुष अवश्य ही राजकुमारी शृंगारसुन्दरी का उद्धार करेगा। + + + श्रीपाल पर उस अज्ञात प्रवासी की भावभरी बातों का प्रभाव पड़ा था। उस प्रभाव ने धीरे-धीरे निश्चय का रूप ले लिया और दूसरे ही दिन श्रीपाल दलपत्तन के लिए अश्वारूढ़ होकर चल पड़ा। दिन भर उसने अपने अश्व पर यात्रा की। बीचबीच में किसी नद-निर्झर के किनारे उसने स्वयं भी विश्राम किया और अपने अश्व को भी विश्राम दिया। साँझ ढलतेढलते उसे पश्चिम दिशा की ओर दलपत्तन नगर के ऊँचेऊँचे आवासों के शिखर दिखाई पड़ने लगे जो डूबते हुए सूर्य की किरणों में स्वर्णिम प्रतीत हो रहे थे। श्रीपाल ने सोचा-नगर में प्रवेश करते-करते रात हो जायगी । रात को कहां ठहरा जायगा? किसी अनजाने Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy