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उसने अपनी प्रजा का पालन सदैव प्रेमपूर्वक पुत्रवत् ही किया था। व्यक्तिगत विलास से कोसों दूर रहकर वह निष्ठापूर्वक अपनी समस्त प्रजा का हित-चिन्तन किया करता था और किसी भी व्यक्ति, किसी भी वर्ग को यदि कभी कोई कष्ट होता था तो उसके कष्ट को वह अपना ही कष्ट मानकर उस कष्ट के निवारण हेतु पुरुषार्थ किया करता था।
यही कारण था कि चम्पानगरी की प्रजा भी अपने राजा को हृदय से प्यार करती थी। वह जानती थी कि हमारा राजा निजी स्वार्थ से परे है। वह हमारे सुख को ही अपना सुख समझता है। हमारे दुख से दुखी होता है ।
ऐसे राजा को कौन प्यार नहीं करेगा? ऐसे राजा के एक इंगित पर कौन अपने प्राण भी न्योछावर करने से पीछे हटेगा?
अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय राजा-रानी के सुख की उस पुण्य वेला में प्रजा सुख से यदि उन्मत्त-सी हो गयी तो यह सहज और स्वाभाविक ही था।
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किन्तु विधि का विधान भी विचित्र ही तो है। जिस प्रकार सुन्दर, सुकोमल, सुरभित पुष्पों से भरे हुए किसी उद्यान के किन्हीं अँधेरे, शीतल कोनों में कोई भयंकर विषधर भी रेंगते रहते हैं, उसी प्रकार उस पवित्र चम्पानगरी के पुण्य प्रांगण में भी कुछ ऐसे अधम न्यक्ति थे मो
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