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पुण्यपुरुष
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प्रिय राजा-रानी की जय-जयकार करता हुआ नाचने लगा। किसी के हृदय पर कोई बन्धन न रहा। हर्ष की कोई सीमा न रही। उल्लास और आनन्द का सागर दसों दिशाओं में उमड़ने लगा । उत्सव मनाये जाने लगे। भावी राजकुमार की मंगल-कामना हेतु धार्मिक अनुष्ठान होने लगे । कल तक जो चम्पानगरी श्मशान जैसी उदास शान्ति में डूबी रहती थी वह आज एकाएक चैतन्य होकर हर्षमुखर हो उठी।
चम्पानगरी की गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ अब रात्रि के समय दीपावलि से जगमग-जगमग करने लगी और आकाश के तारों को चुनौती देने लगीं। दिन के प्रकाश में नगरनिवासियों के विशाल आवासों में बड़ी सुरुचिपूर्वक लगाये गये छोटे-बड़े उद्यान देवताओं के नन्दनवन को भी लजाने लगे। फूल खिल उठे। उनकी रंग-बिरंगी शोभा इन्द्रधनुषों की सृष्टि करने लगी। उनकी कोमल पंखुड़ियों से उठकर पवन में एकाकर होती सुरभि वातावरण को मधुसिक्त करने लगी।
देखते-देखते कैसा परिवर्तन आ गया !
और कैसा था वह युग? कैसे थे वे लोग जो एक दूसरे के सुख में ही अपने सुख का अनुभव करते थे? राजा अपनी प्रजा के लिए प्राण देता था। प्रजा अपने राजा को प्यार करती थी, उसकी पूजा करती थी। ... अम्पानगरी का राजा सिंहरथ ऐसा ही राजा था।
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