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________________ पुण्यपुरुष १६३ भ्रमण करना और इस अद्भुत सृष्टि के सौन्दर्य को निहार कर आनन्द लेना ही मेरा उद्देश्य है । आपको मैंने दलपत्तन की राजकुमारी के विषय में जो बताया, उसमें मेरा अपना क्या उद्द ेश्य हो सकता है ? मैंने तो यह बात आपको इसी दृष्टिकोण से कही है कि उस गुणवती और सुन्दरी राजकुमारी को यदि आपके समान गुणवान और प्रतापी पति प्राप्त हो जाय तो स्वर्ण और सुहागे का संयोग हो जाय । " "लेकिन उस राजकुमारी के माता-पिता क्या कर रहे हैं ? अपनी पुत्री के लिए वे किसी उपयुक्त वर की खोज क्या कर नहीं रहे हैं ?" " कर तो क्यों नहीं रहे हैं, श्रीमान् ! अवश्य कर रहे हैं । आकाश-पाताल एक कर रहे हैं, किन्तु राजकुमारी श्रृंगारसुन्दरी तथा उसकी पाँच सखियाँ जिनधर्म की आराधना करती हैं । वे विदुषी हैं। उन्होंने अपनी-अपनी समस्याएँ रच रखी हैं तथा यह निश्चय कर रखा है कि जो विद्वान व्यक्ति उन समस्याओं का सत्य उत्तर प्रदान करेगा उसे ही वे अपने पति के रूप में स्वीकार करेंगी, किसी अन्य को नहीं; चाहे वह कितना भी बड़ा राजा या सम्राट् हो । " - प्रवासी ने बताया । " अच्छा तो ऐसी बात है । किन्तु महाशय यह तो कहो कि क्या कोई भी व्यक्ति अब तक राजकुमारी की समस्या का सही उत्तर नहीं दे पाया ?" - श्रीपाल ने पूछा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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