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पुण्यपुरुष
अपनी भयंकर तलवार इतनी तीव्र गति से एक ही झपाटे में दो-चार नरेश आहत होकर लोट लगाने लगे ।
श्रीपाल के इस प्रताप को देखकर शेष जो भी नरेश कुढ़ रहे थे और भीपाल से लड़ने के लिए कुलबुला रहे थे वे एक-एक करके सभामंडप के द्वार की ओर पीछे हटने लगे । ऐसा लगने लगा कि जैसे मंडप छोड़कर और श्रीपाल की तलवार की छाया से बचकर निकल जाने की उनमें होड़ जैसी लग गई हो ।
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चलाई कि भूमि पर
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देखते-देखते ही वह स्वयंवर -स्थल सभी आगन्तुक नरेशों से खाली हो गया। अपनी-अपनी तलवार म्यानों में करके, हाथ मलते हुए वे सभी वहाँ से खिसक चुके थे । राजा वज्रसेन अब अपने सेवकों के साथ आगे बढ़े | उन्होंने श्रीपाल का सत्कार किया और प्रेमपूर्वक उसके कन्धे पर हाथ रखकर वे उसे राजमहल में ले गये ।
राजकुमारी त्रैलोक्यसुन्दरी भी अपनी प्रिय सहेलियों से घिरी धीरे-धीरे, श्रीपाल के पीछे-पीछे ही राजमहल में चली गई ।
शुभ घड़ी में विवाह सानन्द सम्पन्न हुआ और श्रीपाल सुखपूर्वक कुछ समय के लिए कंचनपुर में ही ठहर गया । उस समय श्रीपाल और त्रैलोक्यसुन्दरी के दिन कंचन के और रातें चाँदी की बन गई थीं ।
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