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पुण्यपुरुष
मन में आशा सँजाए अकड़कर बैठ जाता और अपनी प्रशस्ति का आनन्द स्वयं लेने लगता किन्तु अन्त वही होता-निराशा।
इस प्रकार चलते-चलते अन्त में राजकुमारी श्रीपाल के सामने जा पहुँची। कमल-पत्रों के समान कोमल अपनी पलकें उठाकर उसने श्रीपाल की ओर देखा। चार नेत्र एक-दूसरे से पलभर मूक सम्भाषण में मग्न हुए और फिर कुछ लजाकर राजकुमारी ने अपनी पलकें झुका लीं। वह वहीं पर स्थिर खड़ी रहकर श्रीपाल की प्रशस्ति सुनाये जाने की प्रतीक्षा करने लगी।
किन्तु श्रीपाल की प्रशस्ति करता कौन ? वह मनमौजी महापुरुष तो वहाँ अकेला ही चला आया था ।
राजकुमारी प्रतीक्षा कर ही रही थी कि श्रीपाल के सिर के ऊपर लगे हुए सुवर्ण छत्र के दण्ड में स्थिर पुतलो बोल उठी
"राजकुमारी त्रैलोक्यसून्दरी ! तुम्हारा परम सौभाग्य तुम्हारे सम्मुख बैठा है । झिझको नहीं। देव तुमसे प्रसत्र हैं । वरमाला श्रीपाल के गले में डालकर अपने सौभाग्य को अमर बना लो।'
उस स्वर्ण-पुतली द्वारा कहे गये इन शब्दों को सुनकर सारी सभा स्तम्भित रह गई । राजकुमारी ने भी चौंककर एक बार उस पुतली को देखा, दूसरे पल श्रीपाल को पुनः देखा और वरमाला उसने श्रीपाल के कंठ में पहना दी।
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