________________
पुण्यपुरुष
१८७
और फिर वह बड़ा आनन्द लेता हुआ उन सभी राजाओं की भिन्न-भिन्न चेष्टाओं और मुद्राओं को देखने में लगा था। राजकुमारी की ओर से उसका ध्यान हट गया था।
किन्तु राजकुमारी त्रैलोक्यसुन्दरी ने जब मंडप में प्रवेश किया था तब उसने एक ही क्षण में एक ही सरसरी दृष्टि में वहाँ उपस्थित सभी नरेशों का मूल्यांकन अपने मन में कर लिया था और उसकी चपल दृष्टि श्रीपाल के मुख पर कछ पलों के लिए स्थिर हो गई थी।
फिर उसने अपने नेत्र झुका लिये।
उसकी सखियों ने उसे आगे बढ़ने के लिए संकेत किया। वह धीमी-धीमी गज-गति से आगे बढ़ी । एक-एक नरेश के समीप से वह निकलती गई । जिस नरेश के सामने वह पहुँचती उस नरेश का परिचय तथा गुणगान उस नरेश के साथ आये पण्डित द्वारा किया जाता । राजकुमारी बेमन से उसे सुनती और आगे बढ़ जाती।
इस प्रकार यह क्रम चलता रहा, राजकुमारी आगे बढ़ती रही।
जिन-जिन राजाओं को छोड़कर राजकुमारी आगे बढ़ती जाती थी, उनके मुख एकदम निस्तेज हो जाते थे, जैसे कोई प्रदीप्त दीपक एकाएक बुझ जाय । निराशा का गहन, काला अंधकार उनके मुखमंडल पर छा जाता था -~-स्याही पुत जाती थी।
जिस नरेश के सामने राजकुमारी पहुँचती, वह अपने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org