SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुण्यपुरुष १८५ I हुई अद्भुत कान्ति को देखा और उनके हृदय कुछ बैठ गये । वे सोचने लगे - ऐसे सुन्दर और शरीर से बलिष्ठ प्रतीत होते हुए इस व्यक्ति को छोड़कर क्या राजकुमारी उनमें से किसी को भी वरण कर सकेगी ? कौन है यह युवक ? कहाँ से आ टपका ? आसपास के क्षेत्रों में कभी किसी ने इसे देखा नहीं, कोई चर्चा इसकी कभी सुनी नहीं गई। इसके नाम तक का किसी को पता नहीं - आखिर देवताओं के भी रूप को निस्तेज कर देने वाला यह विचित्र पुरुष आ कहाँ से गया ? क्या कोई आकाशी देव ही मनुष्य का रूप धारण करके यहाँ आ गया है ? इसी प्रकार की खुसर-पुसर उन राजाओं में होने लगी जिनकी दृष्टि श्रीपाल पर पड़ गई थी । और कुछ ही देर बाद तो यह चर्चा सारे स्वयंवर - मंडप में धीमेधीमे स्वरों में होने लगी- कौन है, कौन है— कौन हो सकता है यह तेजस्वी युवक ? कहाँ का राजकुमार है ? किसी ने उसके विषय से कछ सुना है ? किसी ने इसे कभी देखा है ? यह धीमी-धीमी चर्चा मंडप में हो रही थी । सभी विस्मित थे और कछ-कुछ निराश हो चले थे । किन्तु श्रीपाल मौन, मन्द मन्द मुस्कुराता हुआ शान्त बैठा था, जैसे उसे किसी बात से कोई प्रयोजन ही नहीं हो और वह किसी तमाशे को देखने के लिए ही वहाँ आ बैठा हो तथा तमाशा प्रारम्भ होने की प्रतीक्षा कर रहा हो । उसके सुन्दर रूप और बलिष्ठ देह को देख-देखकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy