________________
१८४ पुण्यपुरुष लौटूंगा, अथवा तुम्हें ही वहाँ बुलवा लूंगा-जैसी भी परिस्थिति हो । अच्छा, अब मुझे विदा करो।"
गुणसुन्दरी ने श्रीपाल के भाल पर प्रेमपूर्वक मंगलतिलक लगा दिया और उसे प्रेमभीनी विदा दी।
देवप्रदत्त उस मणिमाला के प्रभाव से श्रीपाल कुछ पलों में ही कंचनपुर पहुँच गया। नगरी की शोभा देखते हुए वह धीरे-धीरे स्वयंवर-स्थल पर जा पहुंचा। वह स्थल बड़े परिश्रम तथा सावधानी से सजाया-संवारा गया था। वातावरण में पवित्रता का आभास होता था । अनेकों नरेश अथवा राजकुमार वहाँ पहँच चके थे तथा एक-एक आसन पर वे विराजमान थे। उन आसनों के ऊपर सुन्दर छाया करने के लिए स्वर्ण तथा रजत के तारों से कढ़े हुए छत्र थे। वे छत्र सुदृढ स्वर्ण स्तम्भों के सहारे टिके थे। उन स्तम्भों पर एक-एक रत्नजटित सुशोभन पुतली भी बनी हुई थी।
धूमधाम मची हुई थी। अनेक सेवक उपस्थित अतिथियों के स्वागत-सत्कार में लगे हुए थे । स्वयंवर समारोह आरम्भ होने ही वाला था।
श्रीपाल ठीक समय पर पहुँच गया था। उसने समारोह स्थल में धीर गति से प्रवेश किया और एक खाली आसन पर वह भी जा बैठा। आसपास बैठे राजाओं ने श्रीपाल की ओर देखा, उसके मुख-कमल से प्रस्फुटित होती
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org