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________________ पुण्यपुरुष १८३ यह विचार निश्चित कर श्रीपाल चैन से सो गया । प्रातः काल होने पर उसने अपनी नववधू गुणसुन्दरी से कहा - "प्रिये ! तुमसे दूर जाने का मन तो नहीं होता, किन्तु कुछ समय के लिए मैं कंचनपुर जा रहा हूँ ।' " नाथ ! आपकी इच्छा ही मेरी इच्छा है । किन्तु अचानक ही कंचनपुर जाने का क्या प्रयोजन आ गया ? क्या कंचनपुर की किसी कामिनी ने निमंत्रित किया है आपको ?" -- हँसते हुए गुणसुन्दरी ने पूछा । श्रीपाल ने भी हँसते हुए ही उत्तर दिया "कुछ-कुछ ऐसा ही समझ लो । वहाँ की राजकुमारी का स्वयंवर है आज । सोचा, जरा धूमधाम देख ही आऊँ । अनेक राजा - राजकुमार वहाँ पहुँचे ही होंगे। उनसे मिलना हो जायगा । देश की वर्तमान राजनैतिक स्थिति का कुछ अनुमान इससे लग सकेगा । आखिर मुझे भी अब अपने प्रदेश लौटना है, अपने राज्य को प्राप्त करना है और अपनी प्रजा के कष्टों को दूर करना है ।" "ठीक है नाथ ! आप जैसा उचित समझें वैसा ही करें | किन्तु अपनी इस दासी को भूल न जायँ .......।" "कैसी बातें करती हो ? क्या श्रीपाल कभी ऐसा कर सकता है ? अपने आत्मीयजन को बिसरा देना तो मैं पाप ही समझता हूँ । तुम निश्चिन्त रहो। मैं शीघ्र ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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