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पुण्यपुरुष
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अन्त में अत्यन्त मधुर मीड़ों तथा एक अन्तिम सूक्ष्म झनकार के साथ श्रीपाल ने वादन समाप्त किया।
उपस्थित मानव-मेदिनी को धीरे-धीरे होश लौटा।
निर्णायकों का कार्य सरल हो गया। अथवा यह भी कहा जाय तो गलत नहीं होगा कि निर्णायकों को कोई निर्णय देना ही नहीं पड़ा। संज्ञा लौटने पर जन-समुदाय एक स्वर में 'धन्य-धन्य' पुकार उठा । 'अद्भुत', 'स्वर्गीय', 'अतुलनीय', 'अनुपम' शब्दों से सभाभवन गूंज उठा। ___ और फिर अपने आसन से उठी राजकुमारी गुणसुन्दरी । उसने वह पुष्पहार अपने कमल जैसे सुन्दर और कोमल हाथों में लिया, हंस जैसी मन्द गति से वह आगे बढ़ी और सकुचाते, शरमाते, किन्तु आत्मिक आनन्द से परिपूर्ण हृदय से वह पुष्पहार-वह वरमाला-उसने श्रीपाल के गले में पहना दी । गुणसुन्दरी श्रीपाल के वास्तविक रूप को निहार रही थी और अपने सौभाग्य के सुख में डूबी हुई थी।
किन्तु शेष उपस्थित व्यक्ति श्रीपाल के अद्भुत वीणावादन से तो परम प्रसन्न और संतुष्ट थे, जिनमें स्वयं राजा मकरकेतु तथा रानी कर्पूरतिलका भी सम्मिलित थीं, लेकिन श्रीपाल के उस रूप को देख-देखकर उन सभी के मन में एक विषाद भी छाया हुआ था-हाय ! ऐसी अद्भुत कला और........और यह रूप !
अब श्रीपाल ने लोगों को अधिक विस्मय तथा दुःख में
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