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१७८ पुण्यपुरुष
निर्णायकों ने, अन्य आचार्यों ने पहिले तो उपेक्षापूर्वक श्रीपाल को तथा उस वीणा को देखा और फिर वे स्तम्भित रह गये। श्रीपाल का कथन सही था। बड़े-बड़े कलाकारों-आचार्यों की दृष्टि की पकड़ में भी जो सूक्ष्म दोष नहीं आ सका था, उसे श्रीपाल ने एक सरसरी दृष्टि से ही पकड़ लिया था।
अब किसी व्यक्ति का साहस नहीं था कि श्रीपाल के उस असुन्दर रूप को देखकर हँसने की धृष्टता कर सके। व्यक्ति के गुणों के सामने उसके शरीर की असुन्दरता महत्त्वहीन हो जाया करती है ।
श्रीपाल को तत्काल दूसरी वीणा प्रदान की गई। वह वीणा शुद्ध थी। श्रीपाल ने आसन जमाया, आँख मूंदकर एकाग्र चित्त से नवपद का ध्यान किया और वीणा के तार छेड़ दिये........।
और फिर उन तारों से जो स्वर्गीय झंकार निकाली उसे सुनकर वहां उपस्थित जन-समुदाय तो आत्मविभोर हो ही गया, स्वर्ग के देवता भी मुग्ध होकर उस अद्भुत संगीत को सुनने लगे।
श्रीपाल की वीणा बजती रही, वातावरण में सत्, चित्त और आनन्द की वर्षा होती रही तथा समय व्यतीत होता रहा।
कितना काल बीता, किसी को होश नहीं रहा ।
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