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________________ पुण्यपुरुष १७७ प्रतियोगिता आरम्भ हुई। अनेकों उत्साही, गुणी, आशावादी युवकों ने वीणावादन किया। बहुत अच्छी वीणा बजाई गई उस दिन राजा मकरकेतु की उस राजसभा में। एक से एक बढ़कर राग-रागनियाँ छिड़ीं। वातावरण संगीत के प्रभाव से आनन्दमय हो गया। श्रोला मुग्ध हो गये। 'धन्य-धन्य' की ध्वनि बार-बार उठकर सभाभवन और आकशमण्डल को गुजारित करने लगी। परम विमोहन तथा चरम आनन्द के ऐसे दुर्लभ क्षण शताब्दियों में कभी-कभी ही आते हैं। किन्तु इस परम-चरम आनन्द की भी उत्तमोत्तम, शीर्ष घड़ी तो अभी आनी बाकी ही थी। श्रीपाल का वीणावादन अभी शेष था । अन्त में वह घड़ी भी आई। चंकि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी कला प्रदर्शित करने का खुला अवसर राजा मकरकेतु की ओर से प्रदान किया गया था, अतः श्रीपाल के उस छद्म रूप को, जो कि अत्यन्त असुन्दर था, देखते हुए भी उसे रोका तो जा नहीं सकता था। अत: उसे भी वादन करने हेत एक वीणा प्रदान की गई। श्रीपाल ने वह वीणा अपने हाथ में ली, उस पर एक दृष्टि डाली और मुस्कुराते हुए कहा___ "उपस्थित निर्णायक आचार्यगण ! यह वीणा अशुद्ध है। देखिये, इसकी तूंबी में दोष है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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