SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुण्यपुरुष १७५ हुआ था, जिसकी मन्द-मधुर सुगन्धि सारे सभा भवन में फैल रही थी। श्रीपाल भी सभाभवन के द्वार पर जा पहुँचा । किन्तु आड़े- टेढ़े, ऊटपटांग विद्रूप वामनरूप को देखकर द्वारपाल ने उसे दूर से ही झिड़क दिया A " रुको, रुको, वामनदेव ! इस समय भाग जाओ यहाँ से। यह कोई भिक्षा माँगने का अवसर नहीं है । जानते नहीं ........।" द्वारपाल इतने शब्द ही बोल पाया था कि श्रीपाल ने उसके हाथ में एक जगमगाता हुआ हीरा रख दिया । उस हीरे का प्रभाव चामत्कारिक हुआ । द्वारपाल की भ्रष्ट बुद्धि क्षणमात्र में निर्मल हो गई और उसे इस सत्य के दर्शन हो गये कि मानव-मानव में भेद नहीं करना चाहिए । रूप तो अस्थिर है । स्थायी तो गुण ही हैं । और यह वामन चाहे असुन्दर दीखता हो किन्तु है गुणवान । अतः इसे प्रवेश देना चाहिये | यह विवेक ज्यों ही उस द्वारपाल की आत्मा में उस मूल्यवान हीरे के प्रभाव से जागृत हुआ कि उसने कहा " पधारो, पधारो, वामनदेव ! बाहर ही क्यों रुक गये ? भीतर पधारो । आज तो सभी नागरिकों को इस कलाप्रतियोगिता में खुला आमंत्रण है, पधारो ।” मन ही मन मुस्कुराता हुआ श्रीपाल सभाभवन में प्रविष्ट हुआ। ज्यों-ज्यों उपस्थित जन समुदाय की दृष्टि उस www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy