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________________ १७४ पुण्यपुरुष सभी शिष्य अपने-अपने अभ्यास में मग्न हो गये। फिर भी बीच-बीच में वे कनखियों से श्रीपाल की ओर देखते जाते थे और मन ही मन हँसते जाते थे। किन्तु श्रीपाल को उनकी हंसी की कोई चिन्ता नहीं थी। वह दत्तचित्त होकर वीणावादन का अभ्यास कर रहा था। किन्तु पाठक समझ सकते हैं कि यह मात्र दिखावा ही था, सिद्धचक्र की कृपा से श्रीपाल को सहज ही वीणावादन की कला सिद्ध हो चुकी थी। वह केवल काल-यापन कर रहा था। अभ्यास-क्रम इसी प्रकार चलता रहा। और अन्त में एक दिन राजसभा जड़ी। उस सभा में राजकुमारी से विवाह करने के इच्छुक अनेक धुरंधर वीणावादक अपनी-अपनी कला का प्रदर्शन करने वाले थे। निर्णायकों के रूप में उस समय आर्यावर्त में विद्यमान श्रेष्ठतम आचार्य भी उपस्थित थे। दर्शकों और श्रोताओं की भीड़ भवन में समाती नहीं थी। सभी को यह जानने की जिज्ञासा थी कि इतनी गुणवती और रूपवती राजकुमारी किस भाग्यवान को प्राप्त होती है। राजा मकरकेतु और रानी कर्पू रतिलका सिंहासन पर बैठे थे। राजकुमारी स्वयं भी अपनी वीणा सहित सभा में उपस्थित थी। एक सुन्दर पुष्पहार उसके समीप ही एक चन्दन की रत्नजड़ित चौकी पर स्वर्ण-थाल में रखा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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