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पुण्यपुरुष
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क्या तुम भी इन लोगों की भांति मुझसे शिक्षा ग्रहण करने आए हो ?"
"धन्य हैं आप आचार्यवर ! आप तो त्रिकालज्ञ प्रतीत होते हैं । आपने मेरे मन की बात बिना कहे ही जान ली। जी हाँ, प्रभु ! आपकी कृपा हो तो मैं भी आपसे वीणावादन सीखना चाहता हूँ ।"
श्रीपाल ने यह उत्तर दिया और इस उत्तर को सुन कर आचार्य प्रसन्न हो गए। कितना भी बड़ा आदमी हो, अपनी प्रशंसा अन्य के मुख से सुनकर उसे प्रसन्नता अवश्य होती है । फिर वह हार भी तो मूल्यवान था । अस्तु, आचार्य ने कहा
"ठीक है ! वत्स, शुभ घड़ी है उस कोने में रखी वह बीणा उठा लाओ ।"
श्रीपाल ने आचार्य द्वारा संकेतित वीणा उठाई और आसन बाँधकर उनके सामने जा डटा । आचार्य के निर्देशानुसार उसने एक दो तारों को छेड़ा ही था कि वे तार 'टन्न' की ध्वनि करते हुए टूट गये । यह देखकर वहाँ उपस्थित सभी युवक जो कि श्रीपाल को देखते ही, तथा उसकी बातें और उसका रूप देखकर आचार्य के भय से धीरे-धीरे मुस्कुरा रहे थे, अब खिलखिलाकर हँस पड़े ।
किन्त स्वयं आचार्य गम्भीर हो रहे । उन्होंने एक कड़ी दृष्टि अपने सभी शिष्यों पर चारों ओर डाली । कक्ष में एक-दो क्षण के लिए सन्नाटा खिंच गया और फिर अनेक वीणाओं की झंकार पूर्ववत आने लगी ।
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