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१७२ पुण्यपुरुष कौन है ? जरा उनका अता-पता हमें आप बता देते तो बड़ी कृपा होती । हमें जरा जल्दी है.......।"
"हाँ, हाँ, वामनावतारजी ! जल्दी का तो काम ही है। राजकुमारीजी की उम्र चाँद-सी बढ़ती जा रही है और कोई सुयोग्य वीणावादक पहुँच नहीं रहा है। किन्तु अब चिन्ता नहीं। आपका पदार्पण हो गया है। पधारो पधारो-वह देखो, उस मोड़ पर जो आकाश को छूती हवेली दीख रही है न, वह लाल वाली, बस, वही है गायनाचार्यजी की हवेली । पधारो प्रभ, शीघ्र पधारो !"
इकट्ठी हो गई भीड़ में से एक उन्मुक्त अट्टहास उठा।
लोगों को पागलों की तरह हँसते छोड़कर श्रीपाल उस लाल हवेली की ओर चल पड़ा।
सच्चे कलाकारों के द्वार कभी किसी के लिए बन्द नहीं होते। श्रीपाल को भी, उसके इस विचित्र रूप को देखकर भी, किसी सेवक ने रोका-टोका नहीं। वह सीधा धड़धड़ाता हुआ उस विशाल कक्ष में जा पहुँचा जहाँ मखमली गलीचे पर आसीन गायनाचार्यजी सैकड़ों वीणाप्रेमी युवकों को वीणावादन की शिक्षा प्रदान कर रहे थे।
श्रीपाल ने गायनाचार्यजी को साष्टांग दंडवत प्रणाम किया। एक अति मूल्यवान रत्नहार उन्हें भेंट किया। आचार्य ने आशीष दी
"आयुष्मान भव ! कहो वत्स, कैसे आना हुआ ?
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