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पुग्धपुरुष १७१ हाथ, पीठ पर बड़ा-सा कूबड़-~-कुल मिलाकर बड़ा ही हास्यास्पद स्वरूप ।
इस रूप को लेकर श्रीपाल राजपथ पर आगे बढ़ा। बड़े-बड़े श्रेष्ठी अपनी-अपनी रत्न-माणिक्यों की दुकानों पर ठाठ से बैठे वीणा बजा रहे थे । ग्राहक की किसी को कोई चिन्ता नहीं थी। यह देखकर श्रीपाल को मन ही मन बड़ी हँसी आई।
किन्तु हँसने वाला वह अकेला ही नहीं था। स्वयं उसके उस विद्रूप वामन रूप को देख-देखकर वहाँ के नागरिक भी जी भरकर हँस रहे थे। एक आध मसखरे ने पूछ भी लिया
"कहिए वामनावतार जी ! किस देश से पदापण हुआ ? किस उद्देश्य से इस नगरी पर कृपा की ?"
श्रीपाल मन ही मन मगन था। उत्तर दे दिया
"भाई ! बड़ी दूर से राजकुमारीजी की प्रशंसा सुनकर आये हैं। किसी गायनाचार्य से वीणा बजाना सीखेंगे और फिर राजकुमारी जी को ब्याह कर घर बसायेंगे।"
यह उत्तर सुनकर सुनने वालों की हँसी क्या फूटी कि थमने का नाम ही न ले । हँसने वाले पेट पकड़-पकड़कर हँसे । श्रीपाल ने उनके हास्य का कुछ भी बुरा न माना। बड़े भोलेपन से किसी से पूछा
"भैया ! यहाँ इस नगरी में सबसे बड़े गायनाचार्य
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