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________________ १७० पुण्यपुरुष उन्होंने एक सुन्दर मणिमाला श्रीपाल को प्रदान करते हुए कहा-- "इस माला को धारण करने वाला पुरुष आकाशमार्ग से चाहे जहाँ जा सकता है, चाहे जैसा स्वरूप लोगों को दिखा सकता है, विष के प्रभाव से मुक्त रहता है। आपको जब भी अन्य कोई आवश्यकता हो तो नवपद का ध्यान कीजिए, मैं तत्काल आपकी सेवा में उपस्थित हो जाऊंगा।" इतना कहकर देव अन्तर्धान हो गये । श्रीपाल निश्चिन्त होकर सो गया। प्रातःकाल उठकर दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर श्रीपाल ने कुण्डलपुर जाने की इच्छा की। उसी क्षण वह मणिमाला के अद्भुत प्रभाव से कुण्डलपुर के नगरद्वार के बाहर जा पहुँचा। उसने देखा-द्वारपाल भी वीणावादन में तल्लीन है। चरवाहे अपने पशुओं को चरागाहों की ओर ले जा रहे हैं और मस्ती से वीणा बजाते जा रहे हैं। चारों दिशाओं से वीणा की झंकार ही सुनाई दे रही है। वह बनजारा सरदार झूठ नहीं कहता था, कुछ आनन्द तो यहाँ अवश्य आयेगा-यह सोचकर श्रीपाल ने नगर द्वार में प्रवेश किया। किन्तु इसी के साथ उसने एक बात और भी की। उसने अपना रूप एकदम विद्रूप बना लिया-काली, डरावनी-सी शक्ल, बड़े-बड़े दांत बाहर निकले हुए, छोटे-छोटे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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